क्या यही ज़िंदगी है कि हम अपने होने की ख़ुशियाँ मनाते रहें जिस्म की लज़्ज़तों नफ़्स की शहवतों में भटकते रहें सारे बे-आसरा ग़म-गज़ीदों को इबरत का ज़रिया समझ कर अपनी आसाइशों ने'मतों के लिए सज्दा-ए-शुक्र में अपने सर को झुकाते रहें क्या यही ज़िंदगी है क्या यही ज़िंदगी है कि हम ग़ासिबों ज़र-परस्तों से नज़रें चुरा कर बे-कसों बे-सहारों को सब्र-ओ-क़नाअत की तल्क़ीन करते रहें गर यही ज़िंदगी है तो मेरे ख़ुदा छीन ले हम से अपनी ख़िलाफ़त का मंसब कि हम वाक़ई इस के लाएक़ नहीं वर्ना ऐ मेरे रब रहम कर रहम कर ज़िंदगी दी है हम को तो फिर ज़िंदगी का सलीक़ा सिखा दे