ख़ुदाए बरतर अज़ीम ख़ालिक़ सबा को रफ़्तार देने वाले नफ़ी को इसबात देने वाले तू मेरे जज़्बों को चाँदनी दे शिकस्ता हर्फ़ों को रौशनी दे कबीदा लम्हों को ताज़गी दे बुरीदा लफ़्ज़ों को ज़िंदगी दे मैं सोचता हूँ शजर कि जिस का नहीं हो साया न जिस से फल का भी आसरा हो ख़ुदाए बरतर अज़ीम ख़ालिक़ तू मेरे ज़ख़्मों की लाज रख ले क़लम के फूलों का ताज रख ले मैं चाहता हूँ ऐ मेरे मौला मुझे तू ले और मेरे बदले तिरे जहाँ को एक सच्चा आदमी दे बस ये कमी तू पूरी कर दे