दुख मैले आकाश का

दुख के रूप हज़ारों हैं
हवा भी दुख और आग भी दुख है
मैं तेरा तू मेरा दुख है
पर ये मैले और गहरे आकाश का दुख
जो क़तरा क़तरा टपक रहा है
इस दुख का कोई अंत नहीं है
जब आकाश का दिल दुखता है
बच्चे बूढ़े शजर हजर चिड़ियाँ और कीड़े
सब के अंदर दुख उगता है
फिर ये दुख आँखों के रस्ते
गालों पर बहने लगता है
फिर ठोड़ी के पंज-नद पर सब दुखों के धारे आ मिलते हैं
और शबनम सा मुख धरती का
ख़ुद इक धारा बन जाता है
सुना यही है
पहले भी इक बार दुखी आकाश की आँखें टपक पड़ी थीं
पर धरती की आख़िरी नाव
ज़ीस्त के बिखरे टुकड़ों को छाती से लगाए
पानी की सरकश मौजों से लड़ती-भिड़ती
दूर उफ़ुक़ तक जा पहुँची थी
आज मगर वो नाव कौन से देस गई है
दुख मैले आकाश का दुख
अब चारों जानिब उमड पड़ा है
क़तरा क़तरा टपक रहा है
This is a great आकाश की शायरी. True lovers of shayari will love this आकाश पर शायरी.

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