मैं हूँ या तुम हो ये सच है अपने अंदर एक क़बीला हर कोई है जिस को शायद रात को सहरा के रोने का राज़ पता है ऐसा रोना दूर कहीं जैसे कुछ बच्चे सदियों पहले हम ने जिन को क़त्ल किया हो और वो अपने क़त्ल से पहले रोए चले जाते हों या फिर ये उन रूहों का रोना हो जो इंसानी रूप में ज़ाहिर हो न सकी हूँ रेत के टीलों को छू छू कर मिस्ल-ए-हवा रोए जाती हूँ और क़बीले के बाशिंदे हम अपने ख़ेमों में लेटे अपने आप से बातें करते रात को सहरा की तन्हाई का रोना सुनते रहते हैं सारंगी की सुर की तरह सिसकता सहरा हम सब में है लेकिन फिर भी मेरा रोना तेरा रोना दुख से ख़ाली ख़ाली क्यूँ है