इक शख़्स इक मज़ार पे रोता था बैठ कर मेरा भी इत्तिफ़ाक़ से इक दिन हुआ गुज़र पूछा ये मैं ने रोता है क्यूँ इतना ज़ार-ज़ार ये वालिदा की क़ब्र है या बाप का मज़ार बोला कि मेरे रोने का कुछ पूछिए न हाल जो शख़्स इस में दफ़्न है उस का नहीं मलाल ख़ाविंद मेरी बीवी का ये मुझ से पहले था बीवी की धमकीयों से ये घबरा के मर गया मैं रो रहा हूँ ये तो जहाँ से चला गया अपनी बला को मेरे गले से लगा गया