ख़ुदा-ए-बर्तर हमारी चीख़ें हमारे सीनों में जम गई हैं तमाम साथी तमाम घायल हमारे क़ातिल बने हुए हैं कभी तो उन के तमाम छाले हमारे ख़ूँ को जला रहे हैं कभी ये सारे अलील इंसाँ गुरेज़-ओ-तंज़-ओ-जफ़ा के आरे चला रहे हैं जवाब क्या दें ख़ुदा-ए-बर्तर उन्हें शिफ़ा दे कि हम वो अपने तमाम रंगों की काएनातें उन्हें दिखाएँ जो कितनी सदियों से बन के लावा हमारे सीनों में जल रही हैं