कभी बचपन में जो पढ़ते थे परियों की कहानी में परी कोई तिलस्माती असर से नीम-शब सारे खिलौनों को बदल देती थी जीती-जागती मख़्लूक़ में अब यूँ हुआ ऐसे ही नादीदा असर ने एक घर में कुछ खिलौनों को अता की ज़िंदगी और लम्हा भर में इन को हँसने बोलने और सुब्ह की पहली किरन तक ज़िंदा रहने पर क्या क़ादिर उन्ही में एक था ऐसा खिलौना जो खिलौनों से भरे कमरे में तन्हा था उसे बच्चे कभी आग़ोश में लेते कभी ठोकर लगाते थे उसे सोफ़े के पीछे फेंकते और भूल जाते थे ये उन का खेल था और उस की क़िस्मत आज वो मज़लूम भी पल-भर में ज़िंदा हो गया था वो खिलौना अब कोई दर्द-आश्ना बे-लौस साथी चाहता था उस ने अपने पास ही रखी हुई गुड़िया की जानिब दोस्ती का हाथ फैलाया मगर गुड़िया लरज़ कर हट गई पीछे कि जैसे कोई दस्त-ए-तिफ़्ल-ए-नादाँ इस की जानिब बढ़ रहा हो जो उसे ईज़ा भी देगा और शायद तोड़ भी देगा उसे बे-मेहर बच्चों से जो दुख मिलते रहे थे उन की तल्ख़ी ने उसे अच्छे बुरे के फ़र्क़ से और सच्चे जज़्बों की पज़ीराई से बेगाना किया था वो शायद रिश्ता-ए-एहसास की उस मेहरबाँ तासीर से ना-आश्ना भी थी जो आँखों में चमक और ज़िंदगी में रंग भरती है शिकस्ता-दिल खिलौना हाथ वापस खींच कर अब सुब्ह की पहली किरन का मुंतज़िर है जब फ़ुसूँ टूटे और इस से ज़िंदगी छिन जाए वो फिर एक बे-एहसास और बे-जान शय बन जाए