ऐ हिज्र-ज़दा शब आ तू ही मिरे सीने से लग जा कि बटे ग़म एहसास को तन्हाई की मंज़िल से मिले रह आवाज़ की गुमनाम ज़मीनों को मिले नम आ कुछ तो घटे ग़म इस साअत-ए-महजूर की फ़रियाद हो मद्धम क्यूँ नौहा-ब-लब फिरती है महरूम-ए-मुख़ातब ऐ हिज्र-ज़दा शब देख आज तमन्नाओं की बे-सम्त हवाएँ दिल-ए-शर्मिंदा-नज़र को फिर ले के चली हैं वही बे-रख़्त हवाएँ उसी जादू के नगर को जिस ख़ाक पे उतरे थे मुरादों के सहीफ़े सनकी थी जहाँ सब्ज़ हवा, कू-ए-वफ़ा की महके थे जहाँ फूल-सिफ़त रंग किसी के उस ख़ाक का हर रूप मिरे वास्ते ज़िंदान कुछ रूठे हुए ख़्वाब हैं कुछ टूटे हुए मान कुछ बरसे हुए अब्र हैं कुछ तरसे हुए लब ऐ हिज्र-ज़दा शब आ तू ही गले लग के बता कौन यहाँ है जुज़ ख़ुद-सरी-ए-मौज-ए-हवा कौन यहाँ है हमदर्द मिरा तेरे सिवा कौन यहाँ है आ चूम लूँ आँखें तिरी रुख़्सार तिरे लब ऐ हिज्र-ज़दा शब