ऐ ज़िंदगी तो अब तुम्हारी उम्र की बहारें गुज़र गईं और ख़िज़ाँ का मौसम आने वाला है अच्छा तू ये बता ज़िंदगी कि चाँद की परियाँ अब तक मेरे आँगन में रोज़ाना क्यूँ उतरती हैं क्यूँ मुझे आसमानों की सैर कराती हैं मैं अब तक रंगों से क्यूँ खेलती हूँ मुझे काएनात से परे एक दुनिया क्यूँ दिखाई देती है जहाँ सिर्फ़ फूल ही फूल होते हैं और मीठे पानी के आबशारों में मेरा वजूद भीगता है मैं ओक भर कर उन से पानी क्यूँ पीती हूँ अब तक मुझे परिंदों की बोली क्यूँ समझ में आती है मुझे शरारत करना क्यूँ भाता है अब तक मैं हँसना क्यूँ नहीं भूली हूँ मेरे अंदर की बच्ची क्यूँ अब तक अपने टूटे हुए खिलौनों से खेलती है मेरे हसीन ख़्वाब क्यूँ नहीं छूटे अब तक ज़िंदगी ऐ ज़िंदगी मुझे ये बता कि मैं ने अब तक नफ़रत करना क्यूँ नहीं सीखा