इक हर्फ़-ए-फ़सुर्दा दाग़ में है इक बात बुझे चराग़ में है इक नाम लहू की गर्दिशों में तूफ़ान में डोलता सफ़ीना डूबे न भँवर के पार उतरे इक शाम कि जिस के बाम-ओ-दर को हारी हुई सुब्ह से शिकायत रूठे हुए चाँद की तमन्ना इक राह-नवर्द जो ये चाहे पाँव न हद-ए-वफ़ा से निकले सर से न सफ़र का बार उतरे