मेरी नज़्मों के सादा-लौह क़ारी तुम्हें क्या इल्म मैं बरसों से अपनी सोच के जंगल में तुम को बे-सबब भटका रहा हूँ ब-ज़ाहिर तुम को लगता है कि मेरी सारी नज़्में दर्द के तारीक जंगल में तुम्हारी हम-सफ़र हैं मगर ये सच नहीं है मिरी नज़्मों के सारे लफ़्ज़ काज़िब हैं मिरे लहजे का सारा कर्ब झूटा है मिरी नज़्में तो मेरे ज़ेहन-ओ-दिल में मुंतशिर बे-रब्त ना-आसूदा उम्मीदों और तमन्नाओं का मस्कन हैं मिरी नज़्में तो मेरी भी नहीं हैं मिरी नज़्मों के सादा-लौह क़ारी तुम्हें क्या इल्म