निगाह-ए-फ़ुसूँ-साज़ दिल में उतर कर ज़माने से बेगाना सा कर गई लहू क़तरा क़तरा निगाहों से ज़ंजीर बन कर टपकता रहेगा ये तूफ़ानी मौजें यूँही कब तलक मुझ से आ आ के टकराएँगी आग कब तक जलेगी धुआँ कब तलक यूँही उठता रहेगा ये कैसे हुआ सारे रिश्ते फ़क़त एक ही ज़ात में आ समाए हमें नाज़ है कि हम ने वो सदियों पुरानी कहानी दोबारा कही है कि इक क़िस्सा-ए-कुहना को फिर से दोहराया हम ने वो सदियों पुरानी कहानी जिसे आज की दौड़ती भागती ज़िंदगी ने फ़रामोश सा कर दिया था