कहीं सुना है गए ज़मानों में लोग जब क़ाफ़िलों की सूरत मसाफ़तों को उबूर करते तो क़ाफ़िले में इक ऐसा हमराह साथ होता कि जो सफ़र में तमाम लोगों के पीछे चलता और उस के ज़िम्मे ये काम होता कि आगे जाते मुसाफिरों से अगर कोई चीज़ गिर गई हो जो कोई शय पीछे रह गई हो तो वो मुसाफ़िर तमाम चीज़ों को चुनता जाए और आने वाले किसी पड़ाव में सारी चीज़ें तमाम ऐसे मुसाफिरों के हवाले कर दे कि जो मनाज़िल की चाह दिल में लिए शिताबी से अपने रस्ते तो पाट आए पर अपनी उजलत में कितनी चीज़ें गिरा भी आए गँवा भी आए मैं सोचता हूँ कि ज़िंदगानी के इस सफ़र में मुझे भी ऐसा ही कोई किरदार मिल गया है कि मेरे हम-राह जो भी अहबाब थे मनाज़िल की चाह दिल में लिए शिताबी से रास्तों पर बहुत ही आगे निकल गए हैं मैं सब से पीछे हूँ इस सफ़र में सो देखता हूँ कि रास्ते में वफ़ा मुरव्वत ख़ुलूस-ओ-ईसार मेहर-ओ-उल्फ़त और इस तरह की बहुत सी चीज़ें जगह जगह पर पड़ी हुई हैं मैं अपने ख़ुद-साख़्ता उसूलों की ज़र्द गठरी में सारी चीज़ें समेटता हूँ और अपने एहसास के जिलौ में हर इक पड़ाव प जाने वालों को ढूँडता हों पर ऐसा लगता है जैसे मेरे तमाम अहबाब मंज़िलों को गले लगाने बहुत ही आगे निकल गए हैं या मैं ही शायद वफ़ा मुरव्वत ख़ुलूस-ओ-ईसार मेहर-ओ-उल्फ़त और इस तरह की बहुत सी चीज़ें समेटने मैं कई ज़माने बिता चुका हूँ