दिन ढले मंदिरों के कलस मस्जिदों के मनारे घरों की छतें सोने चाँदी के पानी से धुलने लगे क़ुल्ला-ए-कोह से चश्म-ए-नज़्ज़ारा लेकिन बड़ी दूर तक पिघले सोने की चादर के नीचे तड़पता हुआ गहरी ज़ुल्मत का एक बहर-ए-ज़ख़्ख़ार भी देखती रह गई कैसा मंज़र है ये मैं अभी उम्र के ढलते सूरज की दुनिया नहीं फिर भी मेरे सुनहरे दोपहरे तबस्सुम के नीचे कहीं आँसुओं का समुंदर न बेचैन हो नीचे आओ ज़रा रिफ़अत-ए-बाम से और देखो कभी कैसा आलम है ये