हम कहीं साअत-ए-बे-बाल-ओ-परी खोल के दम लेते हैं रेग-ज़ारों से निकलते हैं रवानी ले कर और उतर जाते हैं गदराए हुए पानी में बस इसी पानी में है अपनी हवस अपने चलन का क़िस्सा ये चलन ख़्वाब-गह-हस्त से होता हुआ काशाने तलक जाता है जिस की दर्ज़ों से दुआ झाँकती है और ख़िल्क़त है कि ग़फ़लत-भरे पहरों में हवा माँगती है