मैं हयात-ए-मुहमल की जुस्तुजू में सफ़र ज़माने का कर चुका हूँ मैं इक जुआरी की तरह सारी बिसात अपनी लुटा चुका हूँ मैं आदमी के अज़ीम ख़्वाबों की सल्तनत भी गँवा चुका हूँ न जेब रख़्त-ए-सफ़र का तोहफ़ा लिए हुए है न ज़ेहन मेरा किसी तसव्वुर का दुख उठाने किसी मोहब्बत का बोझ सहने के वास्ते इख़तिलाल में है मैं फ़ातेह की तरह चला था जो रास्ते में मिले मुझे वो तेग़ मेरी से कट गए थे मैं ज़ाएरों के लिबास में क़र्ज़ ख़ूँ-बहा का उतारने, सर मुँडा के यूँही निकल गया था कि लौट आऊँगा एक दिन फिर बताऊँगा मैं हयात-ए-मुहमल का राज़ क्या है? ये ख़्वाब है या ख़याल है? मैं हयात-ए-मुहमल की जुस्तुजू में सफ़र ज़माने का कर चुका हूँ मैं बे-नवा बे-गियाह और बे-समर शजर हूँ जो सौ ज़मानों की धूल में बे-बसर भिकारी की तरह अपनी ही आस्तीं में लरज़ रहा है!