किस तसव्वुर के रक़्स में गो तिरी सदा का वजूद मुझ को मिला नहीं है किसी किताब-ए-कुहन में चलती अज़ीम दानिश के नक़्श-ए-पा में तिरे बदन का निशान मुझ को मिला नहीं है मैं चार सम्तों से पूछता हूँ अनासिरों के तग़य्युरों से में सल्तनत के नजूमियों से ये पूछता हूँ कि कौन है तू जो मेरे ख़्वाबों के सिलसिले में मिरे तफ़क्कुर के रास्तों में नए तनाज़ों का बीज बो कर चली गई है कहाँ कि मुझ को पता नहीं है ज़मीं के नक़्शे पे आबनाओ के साथ चल कर कभी सदा से भी तेज़ चलते जहाज़ के दाएरे दरीचे से सर लगा कर में अर्ग़वानी शराब थामे दबीज़ शीशों की दूरबीं से निगाह की आख़िरी हदों तक तिरे तसव्वुर को देखता था मगर ख़ला के सिवा कहीं कुछ नज़र न आया ये सोचता हूँ कि मैं तसव्वुर के आईने में सलीस बातों के पैरहन में तुझे उतारूँ तो किस तरह मैं जो ज़िंदगी के तज़ाद में है जो आरज़ू के फ़साद में है जो तेरी ख़ातिर तमाम दुनिया की इशरतों से फ़रार हो कर नए तमद्दुन के ज़ाइचे में नई अलामत के दाएरे में तिरे क़दम के नुज़ूल को फिर तलाश करने की कश्मकश से गुज़र रहा है चराग़ जिस के दिमाग़ का इक मुराक़बत में सुलग रहा है