कभी अगर तुम ज़मीं से गुज़रो ज़मीं जो हम सब की सल्तनत है तो जिस तरफ़ इक कली के मोहरे पे चाँदनी अपना नाम ख़ुद है वहाँ ज़रा देर के लिए अपनी उम्र की रफ़्-ओ-बूद रोको ज़मीं को लम्हों की बादशाहत में देखना चाहो इस तरीक़े से आरज़ूओं के साथ देखो कि जिस तरह लोग अपने महबूब के बदन को वफ़ात के वक़्त देखते हैं मैं कुछ नहीं अपने गीत का अपनी मौत का नामा-बर हूँ अक्सर ज़मीं की क़िस्मत में जितनी ज़र्दी है वो हूँ लेकिन हज़ार क़ीमत वो शय हूँ जिस की इनायतों से कभी सितारे ज़मीं पे रौशन हैं गाह दिल में बहार और उस के ख़ैर-मक़्दम का माजरा हैं इसी लिए जब कभी तुम्हारा गुज़र हो और दिन के नेक सूरज ख़ुद अपने मौसम की बादशाहत हों, तो जहाँ आँसुओं के चश्मे फ़िराक़ की ओस हैं वहाँ अपनी चाप के साथ मेरे साए की रौशनी में कभी मिरा ज़िक्र करना चाहो तो ख़ुद को समझो मैं ख़ुद हूँ और तुम मिरे ही मौसम का अब्र हो अब्र जो ज़मीन ही की मिलकियत का ग़ुबार भी बहर भी है रहमत का अब्र भी है ख़ामोशियाँ मेरे साथ सारी बहार का मोजज़ा हैं साया जहाँ गुज़िश्ता कई दिनों से तड़प रहा है वहाँ पुरानी ज़मीं ने कलियों का ताज फेंका है और दुनिया कई महीनों के बाद यूँ ख़ुशनुमा है जैसे मिरा मुक़द्दर तिरी तमन्ना से ख़ुशनुमा है