ऐ किसी गुलशन ज़र्रीं की गराँ-क़द्र कली अपनी उजड़ी हुई महकार छुपा ले मुझ से ऐ किसी बिस्तर-ए-कम-ख़्वाब की बे-रंग शिकन अपना रौंदा हुआ किरदार छुपा ले मुझ से ऐ किसी जन्नत-ए-ज़र-फ़ाम से आने वाली अपना टूटा हुआ पिंदार छुपा ले मुझ से तू ने इक बार कहा था मुझे तन्हाई में प्यार दौलत का परस्तार नहीं हो सकता ज़िंदगी हिर्स के पहलू में नहीं सो सकती जिस्म रुस्वा सर-ए-बाज़ार नहीं हो सकता वलवले रूह के नीलाम नहीं हो सकते हुस्न ज़िल्लत का परस्तार नहीं हो सकता मस्लहत आज मगर जीत चुकी है तुझ को कोई किस मुँह से कहे मूनिस-ओ-ग़म-ख़्वार तुझे कोई किस दिल से कहे प्यार की रानी तुझ को कोई किस तरह कहे पैकर-ए-ईसार तुझे तू ने बेची है सर-ए-आम जवानी अपनी गुदगुदाती है ज़र-ओ-सीम की झंकार तुझे ये तिरा प्यार तिरे जिस्म का सौदा ही सही अब तिरी रूह तिरे पास नहीं आएगी ये तिरा दिल कि भटकता ही चला जाता है इस में अब शिद्दत-ए-एहसास नहीं आएगी तू ने हर-चंद गराँ निर्ख़ ये जल्वे बेचे ये तिजारत भी तुझे रास नहीं आएगी देख उस दौर-ए-जहाँ-सोज़ के वीराने में लज़्ज़त-ए-जिस्म के तूफ़ान ब-हर-गाम उठे क्या यही तुझ को सिखाया है निज़ाम-ए-ज़र ने कि मोहब्बत का जनाज़ा सहर-ओ-शाम उठे क्या यूँही प्यार की तौक़ीर हुआ करती है कि महकती हुई हर साँस का नीलाम उठे देख इस दहर में अरबाब-ए-हवस के हाथों आबरू प्यार की मिट्टी में मिली जाती है हिर्स का शोर फ़ज़ाओं में रचा जाता है बात इख़्लास की होंटों में सिली जाती है सादगी हुस्न का मजरूह-ए-तबस्सुम बन कर किसी जल्लाद के चेहरे पे खुली जाती है तू कि अब तुझ से मुझे कोई सरोकार नहीं बन के तू किस के लिए आइना-रू आती है ये नुमाइश की मोहब्बत इसे मैं जानता हूँ क्यूँ मिरे सामने सहमी हुई तू आती है