हमारे साथ जो कुछ राहज़न भी हैं माख़ूज़ वो अहल-ए-शहर के कहने से छूट जाएँगे गवाह-ए-कुफ़्र हमीं में है कौन पहचाने हमीं तो एक से लगते हैं आज सब चेहरे हमारा जुर्म तो रू-पोश भी नहीं अब के किसी गवाह की हाजत नहीं सज़ा के लिए दयार-ए-ग़म की सदा-ए-नहुफ़्ता पहचानो हवा-ए-जब्र चराग़-ए-नफ़स के दर पे है ये और बात है ख़ुद को छुपा रहा है मगर वली-ए-शहर सँभाले है ताज काँटों का हुजूम बहर-तमाशा खड़ा है गलियों में ये अस्र-ए-ख़ूँ की किफ़ालत का मुद्दई' है अभी सलीब ढूँड रही है किसी मसीह को फिर यही घड़ी है हर इल्ज़ाम अपने सर ले लो