ख़िज़ाँ की आहटें सुन रही हो मेरा जिस्म बुझ रहा है मेरी साँसों के फूल-पत्ते मुरझा रहे हैं मैं वक़्त की शाख़ से न जाने कब टूटूँ और बिखर जाऊँ मेरी किताबें बातें तस्वीरें किसी माइक्रो फ़िल्म आडियो या वीडियो कैसेट पर या किसी सी-डी में महफ़ूज़ कर लो देखो- अब भी वक़्त है मगर वक़्त बहुत कम है मुझे आख़िरी बार छू लो मेरे ख़याल के सीने पर सर रख कर कम्पयूटर से मेरी फ़्लॉपी निकाल कर अपने बलाउज़ के गरेबान में डाल लो न जाने कब ये पहाड़ जंगल शहर समुंदर पाताल ख़ला जिन्हें मैं ने जी भर के देखा तक नहीं लकीरों में ढल कर घटते हुए दाएरों एक ऐसे नुक़्ते में सिमट जाएँ जो अपने ही मरकज़ की गहराई में डूब जाए