मैं ने ढूँडा तुम्हें लम्हों के सियह-ख़ाने में सुर्मगीं रात का लर्ज़ीदा सितारा जैसे उम्र जिस की हो बस इक शब की परेशाँ-नज़री तुम ने देखा मुझे अय्याम के चटख़े हुए आईने में शम्अ-ख़ुद-सोख़्ता की तरह पिघलते हुए लम्हा लम्हा बर्क़-पा वक़्त की हर मौज है ख़ाशाक हैं ये शाम-ओ-सहर ये मह-ओ-साल कोई लर्ज़ीदा सितारा कोई हर लहज़ा पिघलती हुई शम-ए-हस्ती रात की बाँहों में चंद दहके हुए अंगारों की सौग़ात लिए किसी मक़्सूम किसी मा'नी-ए-मौहूम का रिश्ता ढूँडें ये भी मुमकिन नहीं ये भी नहीं तक़दीर-ए-वजूद बर्क़-पा वक़्त की हर मौज है सीमाब से असनाम तरशते हैं कहाँ हल्क़ा-दर-हल्क़ा हबाबों ही की ज़ंजीरें हैं क्या किसी ख़्वाब के चेहरे से उठाए कोई संगीन हक़ीक़त की नक़ाब क्यों किसी बर्क़-सिफ़त लम्हे का दामन थामे किस लिए खोए हुए वक़्त का मातम कि ये मातम-कदा फ़र्दा भी है इमरोज़ भी दीरोज़ भी है