आसमाँ राहतों की जवाँ सेज था रौशनी पूछती है कि मैं कैसे अंधा हुआ मैं तो अंधा ही ठहरा मगर वो जो बीना हैं क्यों सात रंगों को भी एक ही जानते हैं रौशनी कल जहाँ धूप थी आज साया बनी किस के पैरों से चल कर यहाँ तक चले आए तुम रात के साथ मुझ को निगलने की ख़्वाहिश कितनी महँगी पड़ी है कोई सूरज तुम्हारे बदन में भी पलने लगा है ये ज़मीं एक काँटों-भरा ताज क्यों बन गई है