मोहर-ब-लब वीरान दरीचे दरवाज़े सुनसान दूर पहाड़ों की चोटी पर शाही गोरिस्तान नीम की शाख़ों में उलझी है कन्कव्वे की काँप दीवारों पर रेंग रहा है शिकस्तगी का साँप सड़कें रह-गीरों पर डालें ठंडी सर्द निगाह शर्म-ए-उर्यानी से चुप है बूढ़ी शहर-पनाह वक़्त के क़दमों की आहट देती है सुनाई ऐसे सन्नाटे में भटक रही हों बीती सदियाँ जैसे इक इक लम्हा ढूँड रहा है खोई हुई रानाई दौड़ रहा है पीछे को बा-वस्फ़-ए-शिकस्ता-पाई राह में लेकिन कुछ दीवारें आन खड़ी हुई हैं दीवारें जिन पर नंगी संगीनें गड़ी हुई हैं उन से सर टकराते लम्हों के ये पगले साए मम्लिकत-ए-फ़र्दा का रस्ता कौन उन्हें दिखलाए
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