वही दरिया किनारे रोज़ अपनी बाँस की बंसी लिए बैठा हुआ वो शख़्स कितनी बे-नियाज़ी से हर इक लम्हे को अपनी ख़ुश-दिली से दाद देता है कि जिस के रू-ए-रौशन पर क़नाअत मोरछल झलती हुई मोती लुटाती है सहर-ता-शाम लहरों से वो अपनी बात कहता है हवाओं की मधुर सरगोशियों पर खिलखिलाता है परिंदों के सुहाने चहचहों पर झूम उठता है किसी आवाज़ की आहट पे कजरी गुनगुनाता है मगर उस की नज़र डोरी की हर जुम्बिश पे रहती है कोई मछली फँसी तो इस के सीने में कई रंगों की सुब्हें दफ़अतन मरपाश होती हैं मगर ऐसा भी होता है किसी दिन हाथ ख़ाली अपने घर वो लौट जाता है कई मासूम आँखें जब सवाली बन के उठती हैं वही मानूस सी इक मुस्कुराहट इस के चेहरे की किसी नन्ही सी मछली की तरह इक जस्त लेती है शिकस्ता झोंपड़े में एक बिजली कौंद जाती है