तुम अपने कमरे में गहरी तन्हाइयों में गुम थे घड़ी की टिक-टिक जो सुई को टेकते गुज़रती तुम्हें ये महसूस होने लगता कि जैसे सर पर कई हथौड़े बरस रहे हैं तुम्हारी कुर्सी की चरचराहट तुम्हारी तन्हाइयों पे लगता कि बैन करती कोई रुदाली इधर मैं अपने जहान-ए-रंगीं में जी रही थी कि मेरे अतराफ़ ज़िंदगी थी बहार-ए-ताज़ा भी दिलकशी थी हसीं मुलाएम सी रौशनी थी फिर एक दिन इत्तिफ़ाक़ से मिल गए थे हम तुम मोहब्बतों के असीर हो कर चले थे हम तुम मगर सफ़र में न जाने कैसे कहाँ पे आख़िर ये मोड़ आया नसीब ने फिर ये दिन दिखाया हक़ीक़तों को ज़वाल आया तुम आज अपने जहान-ए-रंगीं में जी रहे हो मैं अपने कमरे में गहरी तन्हाइयों में गुम था