अजनबी दोस्त, बहुत देर में रोया है तू! अपनी आवाज़ के सन्नाटे में बैठे बैठे. और आँखों से उभर आई है सय्याल-ए-फ़ुग़ाँ अपनी मजबूरियाँ लाचारियाँ बिखराती हुई रेग-ए-हस्ती के निज़ामात से झुँझलाती हुई. ऐ उदासी की फ़ज़ाओं के परिंदे ये बता अपने अन्फ़ास के तारीक बयाबानों में और तू क्या है ज़मानों की सियाही के सिवा, और तू क्या है सराबों की गवाही के सिवा, रात में सर्द सितारों की जमाही के सिवा. तिरे चेहरे की ज़मीं पर जो नमी है अब भी दिल की सब बस्तियाँ उस में ही ठिठुर जाती हैं, अपने सहमे से किनारों पे थपेड़े खा कर अब भी दुनिया के सिसकने की सदा आती है. अजनबी दोस्त, ऐ मानूस मुक़द्दर के मकीं अपनी आवाज़ के सन्नाटे में बैठे बैठे ये भी क्या कम है कि तू अपने जवाँ अश्कों से अपने हालात के दामन को भिगो सकता है उस जहाँ में कि जहाँ सूख गया है सब कुछ ये भी क्या कम है कि तू आज भी रो सकता है!