कोह से ज़र्रीं अज़िय्यत के गुज़र जाने के बा'द सुर्ख़ नग़्मा शाम का इक पल में मर जाने के बा'द हाँ पस-अज़-फ़रियाद-ओ-क़ल्ब-ए-दहर की लर्ज़िश के बा'द दिन की तुम आलूद-ज़र्द-ओ-लाला-गूँ काविश के बा'द तीरगी के दाग़-ए-दिल से किस तरह धोउँगा मैं जागते ही जागते फिर सुब्ह तक रोउँगा मैं हाँ वही मैं दिन को जिस की आँख थी और आफ़्ताब हाँ वही मैं जिस ने देखा दहर लबरेज़-ए-हयात ज़ेहन-ए-इंसानी मिरा कहता है खा कर पेच-ओ-ताब देख ले हुस्न-ए-मनाज़िर को नहीं हासिल सबात क़ल्ब मयख़ाने की हा-ओ-हू का आदी है मिरा कुछ तअ'ल्लुक़ ही नहीं मुझ को सुकून-ए-संग से मुझ को ख़ुश आती नहीं है अम्न की शब-गूँ फ़ज़ा रूह को तस्कीं मिलेगी एक पैहम जंग से