अब वो आँखों के शगूफ़े हैं न चेहरों के गुलाब एक मनहूस उदासी है कि मिटती ही नहीं इतनी बे-रंग हैं अब रंग की ख़ूगर आँखें जैसे इस शहर-ए-तमन्ना से कोई रब्त न था जैसे देखा था सराब देख लेता हूँ अगर कोई शनासा चेहरा एक लम्हे को उसे देख के रुक जाता हूँ सोचता हूँ कि बढ़ूँ और कोई बात करूँ उस से तज्दीद-ए-मुलाक़ात करूँ लेकिन उस शख़्स की मानूस गुरेज़ाँ नज़रें मुझ को एहसास दिलाती हैं कि अब उस के लिए मैं भी अंजान हूँ, इक आम तमाशाई हूँ राह चलते हुए इन दूसरे लोगों की तरह