ये ख़ैरात ही की करामत है आक़ा ये पर्दे हटा दे बड़े बादशाहों की संगत है सालाना ख़ैरात का मोआ'मला है तो तम्ग़े सजा मेरे आक़ा तिरी हाज़िरी है वो तम्ग़े जो मशरिक़ के मल्बूस पर तंज़ हैं वो तम्ग़े जिहादों के जिन के पत्ते जेल-ख़ानों में फ़रियाद-ख़्वाँ हैं वो जंगें निशाँ जिन के सरहद के अंदर कहीं दफ़न हैं ये ख़ैरात ही की करामत है उतरन से मानूस माहौल में रीत ऐसी चली है कि हर मरहले फ़िक्र में सिर्फ़ इमदाद इमदाद की गुड़गुड़ाती सदा है हर इक फ़र्द ख़ैरात के शौक़ में सरगिराँ है ये पर्दे हटा मेरे आक़ा कि तू भी फ़क़ीर और मैं भी