तेरी फ़ुर्क़त में ऐ मिरे दिलबर दिल कहीं भी बहलता नहीं है लम्हा लम्हा मुझे डस रहा है और दम भी निकलता नहीं है जब भी चाहे तू रोके ज़मीं को तू सितारों से गर्दिश हटा ले और इधर एक मैं हूँ कि ख़ुद से अपना दिल भी सँभलता नहीं है इक चराग़-ए-मोहब्बत था ऐसा जो कि रौशन था तेरी जबीं पर हाए क्यूँ वो चराग़-ए-मोहब्बत मेरी आँखों में जलता नहीं है दूर लगती हैं सब मंज़िलें अब और तारीक हैं रास्ते भी ये सफ़र ख़त्म हो कैसे 'आलम' तू मिरे साथ चलता नहीं है