कई सदी की मशक़्क़त पे फ़िक्रमंद हुए ख़याल-ए-यार फ़ज़ाओं के दर्द-मंद हुए शुऊ'र फ़िक्र से सरगोशियों में कहने लगे अभी तो क़ुदरती वसाइल की शनासाई है अभी तो लब पे कई नुक़रई सदाएँ हैं अभी तो आदमी को आदमी पहचानता है अभी तो मौसमों की रंगतें नहीं बदलीं शुऊ'र फ़िकर से सरगोशियों में कहने लगे अभी तो शम्स के माथे पे कोई बल भी नहीं अभी तो चाँद की हैअत भी हू-ब-हू है वही अभी तो अहल-ए-फ़न के हाथ भी सलामत हैं अभी तो ज़ेहन में ख़ुश-हाल सोच रक़्साँ हैं शुऊ'र फ़िक्र से सरगोशियों में कहने लगे अभी भी लब पे मुस्कुराहटों की आस लिए ब-ज़ाहिर दौर-ए-नौ के नग़्मे गुनगुनाते हुए अभी भी साहिल-ए-दरिया पे ज़ुल्फ़ खोले हुए मिरे ख़याल की सरगोशियाँ ये कहती हैं कई सदी की मशक़्क़त पे ज़र्ब कर देगा नया सवेरा हमें शर्मसार कर देगा