हर तरफ़ है सन्नाटा हर तरफ़ है वीराना आसमाँ के पर्दे में माहताब पिन्हाँ है ज़ुल्मतों के साए में काएनात वीराँ है लापता हवा भी है लापता परिंदे भी बे-सदा उदासी में बर्ग-ओ-शाख़ भी चुप चुप हर शजर ख़मोशी में दर्द से है पज़मुर्दा ख़्वाब-गाह में मेरी ख़ामुशी बला की है हूँ तो मैं थका-माँदा फिर भी नींद अन्क़ा है मैं निढाल बिस्तर पर इक ख़लिश लिए अंदर महव हूँ ख़यालों में चाहतों में तुम मेरी बस गई थीं ख़ुशबू सी हिज्र का लिबास अपना हर घड़ी महकता था मेरे गुलशन-ए-जाँ की इक कली थीं तुम गोया याद है मुझे अब तक वो तुम्हारी ख़ल्वत का अव्वलीन मंज़र भी शौक़-ए-दीद लाया था खींच कर मुझे तुम तक तिश्ना तिश्ना नज़रों से तुम को मैं ने देखा था तुम को मैं ने चाहा था बे-क़रार हो कर भी तुम को मैं ने सोचा था तिश्नगी के सहरा में पा लिया जो तुम को तो शौक़ के सहाबों में प्यास भी बुझाई थी सरख़ुशी की मस्ती में काएनात रक़्साँ थी जिस्म-ओ-जाँ की ख़ुशबू से बाग़-ए-दिल भी महका था ग़म तुम्हारा मेरा था मेरा ग़म तुम्हारा था क़ुर्बतों के साए में मुश्तरक थीं सोचें भी रंज-ओ-शादमानी में थे शरीक दोनों ही ज़िंदगी की राहों में हम-सफ़र थीं तुम मेरी आते जाते मौसम का सिलसिला रहा जारी माह-ओ-साल भी कितने साथ साथ गुज़रे थे यक-ब-यक हवाओं से रंग-ए-आसमाँ बदला फिर रुतों के चेहरे पर रंग-ए-ज़र्द भी आया वक़्त ही के हाथों में हो गए खिलौना हम आस की किरन ले कर अपनी अपनी आँखों में दर्द के सफ़र पर हम निकले जानिब-ए-मंज़िल और भी कई आँखें दरमियाँ हमारे थीं जिन में झिलमिलाती सी इक किरन थी फ़र्दा की दूर देस में हम ने शहर-ए-ख़्वाब जब देखा जीने की ललक अपनी हो गई थी दो-बाला कैफ़-ए-आरज़ू बन कर ज़िंदगी भी रक़्साँ थी आती जाती लहरों में बह गए अचानक हम हो गई शिकस्ता सी कश्ती-ए-तमन्ना भी पहली बार बिछड़े थे एक दूसरे से हम तुम उधर शिकस्ता-पा मैं इधर शिकस्ता दिल बीच में समुंदर है फ़ासला तवालत का दरमियाँ हमारे है वक़्त ही के हाथों में जैसे हम खिलौना हों दर्द का तमाशा अब रोज़ देखता हूँ मैं तुम भी इस तमाशे को रोज़ देखती होगी अब ये सोचता हूँ मैं हम ख़िज़ाँ-रसीदों को कब तलक जलाएगी फ़ासले की आग आख़िर