फिर वही ख़्वाब-नुमा शब के सराबों का चलन जारी है शब कि इस बार सफ़ीरान-ए-चमन और भी कुछ भारी है गुल पे शबनम पे अनादिल पे सबा और हवा सब पे वही सेहर-ए-अलम तारी है फिर उसी तर्ज़-ए-कुहन में नया अंदाज़-ए-फ़ुसूँ-कारी है सख़्त मुश्किल में हैं ऐ जान-ए-वफ़ा अर्ज़-ए-वतन हर्फ़-ए-मक़्सूद रक़ीबों को गवारा भी नहीं क्या करें सब्र का यारा भी नहीं कैसे तामीर की तज़ईन की फिर बात करें ख़ून-ए-दिल नज़्र-ए-गिराँबारी-ए-औक़ात करें हम तही-दस्त जो आहों में असर माँगते हैं सब्ज़-ओ-शादाब हसीं ख़ुल्द-ए-नज़र माँगते हैं अपनी मजबूर तमन्ना का नगर माँगते हैं एक बे-दाग़ सहर माँगते हैं!!