बा'द इक अर्से के जब उस को क़रार आया हवास-ए-मुंतशिर को मुजतमा' करने का वक़्त आया ख़याल आया न क्यूँ हम ऐसा करते हैं रज़्म-गाह-ए-ज़िंदगी में फिर पलटते हैं देख तो लें क्या हुआ था हरीम हरीम-ए-नाज़ में इश्क़ के असरार में जज़्बात के इज़हार में अल-अजब वा-हैरता कैसा यहाँ है मोआ'मला रिदा-ए-इफ़्फ़त-ओ-इस्मत उसे जिस शख़्स ने दी थी उसी की आँखों में और क़ल्ब में नश्तर चुभोती है कि उस बख़्शी हुई चादर के पर्दे में वो अपने जिस्म का और हुस्न का जादू जगाती है हरीम-ए-नाज़ को बद-ज़ातों से आबाद करती है