बरसों बा'द जब उस को देखा फूल सा चेहरा बदल चुका था पेशानी पर फ़िक्र की आयत आँखें अब संजीदा थीं होंट कँवल अब भी वैसे पर शादाबी कुछ कम कम थी पक्के फलों का बोझ उठाए जिस्म तना बल खाता था रंगीं पैराहन में अब भी ख़्वाब की सूरत लगती थी जाने कैसी कैसी हिकायत देख उसे याद आती थी पहली दफ़अ' जब साथ थे बैठे क्लास के अंदर हम दोनों उस के जिस्म के लम्स ने मुझ को पहले तो बुलाया था फिर पक्का दोस्त बनाया था शाम तलक मेले में कैसे फिरते रहे थे इधर-उधर रात गए मम्मी ने उस को खोटी-खरी सुनाई थी रेल के अंदर बैठ के कैसे शरमाए घबराए थे बग़ैर टिकट के पहुँच के घर पर कितनी मौज मनाई थी दोपहर को ढाबे में चाय और सिगरेट के साथ थोड़े से रूमानी हो कर क्या क्या बातें करते थे घर के बाहर लॉन भी होगा गेंदा और गुल-मोहर के फूल खरी खाट नहीं रखेंगे बेड बड़े महँगे होंगे सूट मिरा ऐसा होगा तेरी सारी रेशम की बेटे का जो नाम रखेंगे हिन्दू न मुस्लिम होगा बिल चुकाते वक़्त में अक्सर पैसे कम पड़ जाते थे देख के दद्दू हँसता था फिर जाने क्यूँ ख़ुश होता था कोई बात नहीं है बेटे कल जब आओ दे जाना जाते हुए जब सेठ ने उस की कमर में बाज़ू पहनाया देख के उस की आँखें मुझ को छलक पड़ी थीं चुप के से सोच रहा था पलट के अब वो पूछेगी तुम कैसे हो ये है आप की कॉफ़ी साहब और भी कुछ चहिए होगा