ख़ुशी अदम के किसी झरोके की ओट से झाँकती नज़र का फ़रेब कोई तवील बे-रहम रास्तों पर सराब कोई तमाम शब जुगनुओं को चुनने का ख़्वाब कोई ख़ुशी वो रह रह के चंद लम्हों को साँस लेता हबाब कोई उदास तारों को छेड़ती उँगलियों के ज़ख़्मों से उठते सर के ख़याल में गुम रबाब कोई ख़ुशी कि मीज़ान के जज़ीरों से दूर इक बे-निशान साहिल ज़माने भर की ख़लीज हाइल उभरती मौजों में ग़र्क़ होने की दास्तानों की झिलमिलाहट जो छूना चाहो तो दस्तरस में कोई जज़ीरा न कोई साहिल ये ख़ाक और आब का तवाज़ुन ये बंद मुट्ठी से ज़र्रा ज़र्रा फिसलती मिट्टी नज़र में कोलाज़ इक मुजर्रद इधर गुमाँ की मुंडेर पर कुछ निशान अन्क़ा के बैठने का फ़रेब जैसे तू उस किनारे तराज़ू थामे मुजस्समे की सफ़ेद आँखों पे मा'नविय्यत की काली पट्टी वही सियाही अँधेरे का है जो पेश-ख़ेमा वो संग आँखें कि जिन में पुतली कभी नहीं थी वो जिन की तह में किसी किरन का गुज़र नहीं है ख़ुशी है क्या मुंसिफ़ी है क्या कुछ ख़बर नहीं है