मुद्दतों से ख़मोशी के बे-अंत वरनों की अंधी गुफा में खड़ा वो मिरी पुतलियों में सवालों का नेज़ा उतारे हुए पूछता है मैं तेरी तमन्ना में अपने लिए दर्द के इक सियह-रू समुंदर से तन्हाइयों के सियह सीप लाया सुख के सारे दिए और मसर्रत की मालाओं को तोड़ कर दुख का वर मैं ने माँगा कि तू मेरी रक्षा को आए मगर मुझ को क्यों इन अज़िय्यत की काली सलीबों पे ख़ामोशियों की दरिंदा-सिफ़त कील से जड़ दिया है मुझे किस लिए काले शब्दों के बे-नूर कीचड़ में फेंका गया है सियह रात का मातमी साज़ छेड़े बुझी बाँझ नज़रों से वो पूछता है मैं इक वर की ख़ातिर भला क्यों सज़ा-वार समझा गया हूँ