ऐ गुल-ए-तर किस क़दर दिलकश है नज़्ज़ारा तिरा हामिल-ए-हुस्न-ए-अज़ल है क़ल्ब-ए-सी-पारा तिरा पत्ती पत्ती में तिरी पेश-ए-निगाह-आरफ़ाँ ले रहा है इक जहान-ए-रंग-ओ-बू अंगड़ाइयाँ फ़ाश तेरी दीद से है चश्म-ए-बीना पर ये राज़ जल्वा-गर है आईने के भेस में आईना-साज़ फ़र्श के रंगीं सहीफ़े गुलशन-ए-फ़ानी के फूल जाँ-फ़ज़ा है अर्श-ए-दिल पर ये तिरी शान-ए-नुज़ूल लेकिन इस दुनिया में हुस्न-ए-चंद-रोज़ा का मआल बढ़ रहा है तेरी जानिब ले के पैग़ाम-ए-ज़वाल मुंतशिर होंगे ये औराक़-ए-किताब-ए-रंग-ओ-बू चाक कर देगी ख़िज़ाँ आख़िर नक़ाब-ए-रंग-ओ-बू ज़ेब-ए-सर कर के तुझे अरमाँ निकाला जाएगा पाँव के नीचे फिर इक दिन रौंद डाला जाएगा