तुम्हें गुमाँ है कि ज़ौक़-ए-यक़ीं है वजह-ए-जुमूद असीर-ए-क़ैद-ए-तिलिस्मात-ए-ईन-ओ-आँ तुम हो मक़ाम-ए-सिदरा-ओ-तूबा की क्या ख़बर तुम को अभी तो चाँद सितारों के दरमियाँ तुम हो ये इर्तिक़ा की तग-ओ-दौ ये जेहद-ए-फ़िक्र-ओ-अमल गुमाँ के दम से है इन का वजूद कहते हो मुज़ाहरात-ए-जहाँ पर तुम्हें यक़ीं क्यों है यक़ीं को तुम तो बिना-ए-जुमूद कहते हो इसी यक़ीं पे बनाते हो ज़िंदगी के महल इसी यक़ीं को समझते हो ज़ह्न की तक़्सीर यही यक़ीं तो है सूरत-कुशा-ए-नक़्श-ए-हयात इसी यक़ीं से तो पानी पे खींचते हो लकीर इसी यक़ीं से जो इक ख़त्त-ए-मुसतक़ीम-ए-हयात ज़मीं पे खींचना चाहें तो हम हैं सौदाई तुम्हीं बताओ कि दोनों में कौन अफ़ज़ल है हमारा ज़ौक़-ए-यक़ीं या तुम्हारी दानाई