बदन के झरोके में जितनी निगाहें लगी हैं मिरी हैं कोई और कब सोचता है कि ग़म-ख़ाना-ए-'मीर' के उस तरफ़ एक हँसता महकता बाग़ीचा भी है कितनी अन-छूई कलियाँ जवाँ तितलियाँ रस-भरी झूमती डालियाँ सोंधी मिट्टी की हम-जिंस ख़ुश्बू लबालब सी इक बाओली जाने क्या कुछ मगर वो झरोका कि जिस का मिरे दिल से इक वास्ता है अभी बंद है काम नाज़ुक है आफ़ाक़ की कार-गह का