इस दफ़ा के मौसम-ए-बरसात में एक ठंडी घुप अँधेरी रात में एक नन्ही बूँद आँखें मीचती हिचकिचाती आह ठंडी खींचती छोड़ कर बादल की गोदी जूँ चली ख़ुद से वो ये गुफ़्तुगू करने लगी ये अँधेरी रात और लम्बा सफ़र देखिए होता है क्या मेरा हशर ऐन मुमकिन है गिरूँ मैं फूल पर ये भी इम्काँ है गिरूँ मैं धूल पर क्या ख़बर तंदूर में गिर जाऊँ मैं देखते ही देखते मर जाऊँ मैं ऐसे अंदेशों के संग लड़ती हुई बूँद साहिल पर बहर के आ गई थी वहाँ पर एक सीपी मुँह खुली वो उसी में जा गिरी मोती बनी