साअ'त-ए-ख़ुद-गरी ख़ुद-शनासी रिफ़ाक़त मोहब्बत के वो जागते क़ाफ़िले जो मह-ओ-साल की गर्द में अट गए थे अब भी इक गुम-शुदा रास्ते पर रवाँ हैं हम-नवाई के वो रात-दिन वक़्त की गहरी अंधी गुफाओं से उठ कर मेरे अतराफ़ यूँ जम्अ' होने लगे हैं जैसे मुझे मुझ से मिरी बे-हिसी का गिला कर रहे हों पूछते हों कि क्या मौसमों के अटल दाएरे सोज़-ए-दिल की भी ज़ंजीर-ए-पा हैं उम्र-ए-रफ़्ता के किस बीते लम्हे से पूछूँ वो बेदार रातें पुर-असरार शामें गुहर-बार सुब्हें वो मानूस जज़्बों से सरशार बातें जो पस-ए-पर्दा-ए-दर्द-ए-दिल अब भी सोई नहीं हैं वक़्त के रास्ते पर अगर खुली आँख का ख़्वाब थीं वाहिमा थीं तो दिल से उफ़ुक़ तक ये जलती हुई सुर्ख़ तहरीर क्यूँ है