ऐ सोगवार याद भी है तुझ को या नहीं वो रात जब हयात की ज़ुल्फ़ें दराज़ थीं जब रौशनी के नर्म कँवल थे बुझे बुझे जब साअत-ए-अबद की लवें नीम-बाज़ थीं जब सारी ज़िंदगी की इबादत-गुज़ारियाँ तेरी गुनाहगार नज़र का जवाज़ थीं इक डूबते हुए ने किसी को बचा लिया इक तीरा ज़िंदगी ने किसी को निगाह दी हर लम्हा अपनी आग में जलने के बावजूद हर लम्हा ज़महरीर-ए-मोहब्बत को राह दी हम ने तो तुझ से दूर की हमदर्दियाँ दिखाईं तू ने किसी से रस्म-ए-वफ़ा भी निबाह दी