ऐ रहबर-ए-मंज़िल तिरी रफ़्तार के सदक़े ऐ मेहर-ए-मुनव्वर तिरे अनवार के सदक़े ऐ बंदा-ए-हक़-गो तिरी गुफ़्तार के सदक़े ऐ साहब-ए-ईमाँ तिरे किरदार के सदक़े तो बंदा-ओ-साहब भी था मुहताज-ओ-ग़नी भी जल्वों का अमीं भी तिरे लब पे अरिनी भी हर चेहरा-ए-मर्दुम के ख़द-ओ-ख़ाल बुरे थे देखो जिसे उस शख़्स के आ'माल बुरे थे मुल्ला के भी पंडित के भी आ'माल बुरे थे जो झूट ने फैलाए थे वो जाल बुरे थे सच्चा तिरा दिन और तिरी रात भी सच्ची सच्चा तिरा सौदा तेरी हर बात भी सच्ची इस दर का पुजारी कोई उस दर का पुजारी मग़रिब का पुजारी कोई ख़ावर का पुजारी मीना का पुजारी कोई साग़र का पुजारी क़ब्रों का पुजारी कोई बंजर का पुजारी कसरत थी यहाँ शिर्क की तौहीद नहीं थी रोज़ों का भुलावा था मगर ईद नहीं थी तू हिंदू-ओ-मुस्लिम के गुनाहों से था वाक़िफ़ मज़हब की सिसकती हुई आहों से था वाक़िफ़ तो शो'बदा-बाज़ों की निगाहों से था वाक़िफ़ तो मंज़िल-ए-तौहीद की राहों से था वाक़िफ़ दर हक़ के कभी बंदा-ए-हाजी पे खुले हैं गंगा में नहा कर भी कभी पाप धुले हैं तू ने ये कहा सब से बड़ा हुक्म-ए-रज़ाई तू ने ये कहा साँच की क़ीमत नहीं पाई तू ने ये कहा सो के ये सब उम्र गँवाई तू ने ये कहा झूट है सब ज़ुहद-ए-रियाई पुर-मानी-ओ-पुर-मग़्ज़ हैं नेकी के इशारे हर हाल में हर रंग में रहबर हैं हमारे मैं मस्त-ए-मय-ए-इश्क़ हूँ तन रेश-ए-क़लंदर तीरथ है अगर कोई तो इस मन के है अंदर जाऊँ मैं कहाँ सज्दे को मन मेरा है मंदिर है अज़्म मिरा फ़ातेह-ए-दारा-ओ-सिकन्दर गाते हैं जिसे देवता भी चौदह रतन भी रक़्साँ है उसी दर पे मेरी जान भी तन भी जो दर्स दिया तू ने वो अज़्मत का अमीं है वो प्रेम की अख़्लाक़ की ख़ातम का नगीं है कुंदन जो न हो जाए वो सोना ही नहीं है हक़-गो है जो दुनिया ही में जन्नत का मकीं है सर झुकते हैं सब के तिरी सरकार में आ कर हम सज्दा-कुनाँ हैं तिरे दरबार में आ कर