गुरु-नानक जिसे कहते हैं वो इक मर्द-ए-कामिल था कि उस के पास सीने में तक़द्दुस-आफ़रीं दिल था वो गूँजा नग़्मा-ए-नाहीद बन कर आसमानों में लिया जाता है नाम उस का मुक़द्दस दास्तानों में हक़ीक़त अपनी मनवाई हक़ीक़त-आश्ना हो कर जो उट्ठा इब्तिदा हो कर तो बैठा इंतिहा हो कर सबक़ इंसानियत का देने आया इब्न-ए-आदम को तरक़्क़ी की तरफ़ ले जाने वाला अहल-ए-आलम को ज़मीं भी उस का लोहा मान कर सोना उगलती थी कि जिस के दबदबे से चर्ख़ की छाती दहलती थी वो आया था मिटाने के लिए तफ़रीक़ मज़हब की दम-ए-आख़िर भी की जिस ने इताअ'त एक ही रब की वो इंसाँ जिस के क़दमों पर ज़माना सर झुकाना था तरीक़-ए-गुफ़्तुगू से ग़ैर को अपना बनाता था वो रहबर जिस ने गुमराहों की अक्सर पेशवाई की भलाई की हमेशा जिस ने भी उस से बुराई की ग्रंथी राग सुन कर आदमी बेदार होता है ज़माने की नज़र में साहब-ए-किरदार होता है फ़लक भी ताल-बंदी की ज़मीं पर नाज़ करता है कि उस का ताइर-ए-दिल अर्श पर पर्वाज़ करता है गुरु-नानक की कम से कम इताअ'त है किए होते असर के मोतियों से दामन-ए-दिल भर लिए होते