ज्ञान By Nazm << जासूस दोस्त नज़्म >> मैं कि सुब्ह-ए-अज़ल जुस्तुजू-ए-बशर में चला था जुस्तुजू-ए-बशर में चला था आज तक रात-दिन सिर्फ़ चलता रहा अब जो पहुँचा हूँ इस दश्त में तो ये बोसीदा क़ब्रों के मिटते ख़ुतूत मुझ से कहते हैं आगे इन फ़सीलों से कुछ ही परे एक बस्ती भी आबाद है Share on: