ज़मीर-ए-वक़्त की आवाज़ रूह-ए-अस्र का कर्ब समेटे दामन-ए-दिल में न जाने कब से था हिसार-ए-जब्र-ओ-सितम में दुखों की बस्ती में जलाए शम्अ'-ए-क़लम हम-कलाम शब से था हरीफ़-ए-सुन्नत-ए-आज़र कलीम-ए-जादा-ए-फ़न सनम-कदे में मुख़ातिब बुतों के रब से था वो अपने अहद का मंसूर हर्फ़-ए-हक़ का नक़ीब सलीब-ए-वक़्त पे फ़ाएज़ वो शख़्स कब से था वो लब जो हर्फ़-ए-सर-ए-दार का मुग़न्नी था जो नग़्मा-ख़्वाँ सर-ए-मक़्तल रहा उजालों का हो नज़्म या कि ग़ज़ल मुख़्तलिफ़ वो सब से था कमाल प्यार उसे मंसब-ए-अदब से था वो एक शख़्स जिसे जान-ए-फ़िक्र-ओ-फ़न कहिए जमाल-ए-दीदा-वरी हुरमत-ए-सुख़न कहिए वो एक शख़्स जिसे मशअ'ल-ए-नवा कहिए वो एक शख़्स जिसे नूर का असा कहिए जलाए शम्अ'-ए-क़लम हम-कलाम शब से था सलीब-ए-वक़्त पे फ़ाएज़ वो शख़्स कब से था