ऊँचे पुख़्ता मकान हैं मकानों के नाम हैं इंसान मगर गुमनाम हैं शहरों की यही पहचान है ज़िंदगी एक कोहराम जैसे जीना दुश्वार मौत आसान है शहरों की यही पहचान है भाग दौड़ है आह-ओ-फ़ुग़ाँ है जीना अज़ाब है आदमी से आदमी अंजान है शहरों की यही पहचान है पड़ोसी की मौत पर कोई आँसू नहीं बहाता दो-चार क़दम कोई कांधा नहीं दे पाता आख़िरी आराम-गाह तक कोई साथ नहीं चल पाता मौतें होती हैं हादसों से हादसों की मौतों में कभी ऐसा भी होता है जिन्हें दफ़नाना था वो जलाए जाते हैं जिन्हें जलाना था वो दफ़नाए जाते हैं और कुछ बद-क़िस्मत ऐसे भी होते हैं जो कफ़न से भी महरूम रह जाते हैं