पुरानी बात है लेकिन ये अनहोनी सी लगती है सुना है जब कभी शहर-ए-सबा के हाजी-बाबा अपने शागिर्दों को दर्स-ए-आख़िरी देते सरों पर उन के दस्तार-ए-फ़ज़ीलत बाँधते काले अमामों में सब ही शागिर्द सफ़-बस्ता खड़े ये अहद करते थे ख़ुदावंदा हमारे इल्म में तो ख़ैर-ओ-बरकत दे हमें तौफ़ीक़ दे हम हाजी-बाबा की तरह शहर-ए-सबा के चार कोनों में नए मकतब बनाएँ दर्स-गाहों की बिना डालें सुना है हाजी-बाबा अपने शागिर्दों को चार हिस्सों में जब तक़्सीम करते तो ज़मीं के चार कोनों से सदा-ए-मर्हबा आती हर इक सू मुश्क की ख़ुश्बू फ़ज़ा में फैल सी जाती बहुत दिन बा'द फिर ऐसा हुआ था हाजी-बाबा ने ज़मीं के चार कोनों से धुआँ उठते हुए देखा जले हर्फ़ों की रूह मातम-कुनाँ शहर-ए-सबा में मुद्दतों फिरती रही तन्हा सुना है फिर कभी शहर-ए-सबा के हाजी-बाबा ने दर-ए-मकतब नहीं खोला किसी पर कोई काला अमामा फिर नहीं बाँधा